Wednesday, 29 January 2020

देश के मशहूर शायर मुनव्वर राणा साहब की ये ग़ज़ल जरूर हम सबका हौसला बढायेगी।इंशाअल्लाह.....

 देश के मशहूर शायर मुनव्वर राणा साहब की ये ग़ज़ल जरूर हम सबका हौसला बढायेगी।
इंशाअल्लाह.....

अब फ़क़त शोर मचाने से नहीं कुछ होगा।
सिर्फ होठों को हिलाने से नहीं कुछ होगा।

ज़िन्दगी के लिए बेमौत मरते क्यों हो।
अहले ईमां हो तो शैतान से डरते क्यों हो।

तुम भी महफूज़ कहाँ अपने ठिकाने पे हो।
बादे अख़लाक़ तुम्ही लोग निशाने पे हो।

सारे गम सारे गिले शिकवे भुला के उठो।
दुश्मनी जो भी है आपस में भुला के उठो।

अब अगर एक न हो पाए तो मिट जाओगे।
ख़ुश्क पत्तों की तरह तुम भी बिखर जाओगे।

खुद को पहचानो की तुम लोग वफ़ा वाले हो।
मुस्तुफा वाले हो मोमिन हो खुदा वाले हो।

कुफ्र दम तोड़ दे टूटी हुई शमशीर के साथ।
तुम  निकल आओ अगर नारे तकबीर के साथ।

अपने इस्लाम की तारीख उलट कर देखो।
अपना गुजरा हुवा हर दौर पलट कर देखो।

तुम पहाड़ो का जिगर चाक किया करते थे।
तुम तो दरयाओं का रुख मोड़ दिया करते थे।

तुमने खैबर को उखाड़ा था तुम्हें याद नहीं।
तुमने बातिल को पिछड़ा था तुम्हें याद नहीं।

फिरते रहते है शबे रोज़ बियाबानो में।
जिंदगी काट दिया करते थे मैदानों में।

रह के महलों में हर आयतें हक भूल गए।
ऐशों इशरत में पैगम्बर का सबक भूल गए।

अमने आलम के अमीं जुल्म की बदली छाई।
ख्वाब से जागो ये दादरी से आवाज़ आई।

ठंडे कमरे हंसी महलों से निकल कर आओ।
फिर से तपते हु सहराओं में चल कर आओ।

लेके इस्लाम के लश्कर की हर एक खूबी उठो।
अपने सीनें में लिए जज़्बाए जुमी उठो।

राहें हक में बढ़ो सामान सफ़र का बांधो।
ताज ठोकर पे रखों सर पे अमामा बांधो।

तुम जो चाहो तो जामाने को हिला सकते हो।
फ़तह की एक नई तारीख बना सकते हो।

ख़ुदको पहचानो तो सब अब भी सँवर सकता है।
दुश्मने दीं का शीराज़ा बिखर सकता है।

हक़ परस्तों के फ़साने में कई मात नहीं।
तुम से टकराए "मुनव्वर" ज़माने की ये औकात नहीं।

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